खान-ए-खाना रहीम: साहित्य, सूफ़ियाना सोच और इंसानियत की अनोखी विरासत

अब्दुल रहीम खान-ए-खाना जो तारीख के पन्नों में रहीम के नाम से मशहूर हुए। उन्हें उनके हिंदी दोहे और इल्मे नुजूम (ज्योतिष) पर उनकी किताबों के लिए जाना जाता है। अब्दुल रहीम खान-ए-खाना बैरम खान के बेटे थे। उनकी पैदाइश दिल्ली में हुयी थी। बैरम खान अकबर के सबसे भरोसेमंद सरपरस्तों में से थे।

अब्दुल रहीम गरीबों को खैरात करने के अपने अजीब तरीके के लिए भी जाने जाते थे। उन्होंने कभी भी उस शख्स की ओर नहीं देखा, जिसे वो खैरात दे रहे थे, खैरात देते समय हमेशा उन्होंने अपनी नजरें नीची रखीं।

जब तुलसीदास ने भीख या खैरात देते समय रहीम के इस रवैये के बारे में सुना, तो उन्होंने तुरंत एक दोहा लिखा और रहीम को भेज दिया: – “ऐसी वेबटं ज्यूँ, कित सिखे हो सैन ज्यों ज्यों कर ओच्यो करो, त्यों त्यों निचे नैन” (“तुम ऐसी खैरात क्यों करते हो? यह तुमने कहाँ से सीखा? तुम्हारे हाथ इतने ही ऊंचे हैं, जितनी तुम्हारी आंखें नीची हैं”)

तुलसीदास के इस दोहे के जवाब में अब्दुल रहीम ने भी उनको एक दोहा लिखा – “डिसनहार कोई और है, जो भी रेजीडें कोन भरम हम पर करे, तसो निचे नैन” (“देने वाला तो कोई और है जो दिन-रात दे रहा है। लेकिन दुनिया मुझे क्रेडिट देती है, इसलिए मैं अपनी आँखें नीची कर लेता हूँ।”)

दोहे लिखने के साथ-साथ अब्दुल रहीम खान-ए-खाना ने बाबर की लिखी किताब बाबरनामा का चगताई ज़ुबान से फारसी ज़ुबान में तर्जुमा भी किया इसके अलावा उन्होंने संस्कृत में इल्मे नुजूम (ज्योतिष) पर दो किताबें लिखीं, खेताकौतुकम (देवनागरी: खेटकौतुकम्) और द्वैत्रिंशद्ययोगावली (देवनागरी: द्वात्रिंशद्योगावली) इसके अलावा उन्होंने महाभारत और रामायण का फारसी तर्जुमा भी किया।

1 अक्टूबर 1627 ई. को अब्दुल रहीम खान-ए-खाना ने आगरा में 70 साल की उम्र में अपनी आखिरी साँस ली। मौत के बाद उन्हें दिल्ली लाया गया और उनके बनवाये हुए मकबरे में दफ़न कर दिया गया। जिसे उन्होंने 1598 में अपनी बेगम माह बानो के लिए बनवाया था।

यहाँ आपको एक और दिलचस्प बात बता दें कि यह मकबरा हिंदुस्तान का पहला ऐसा मकबरा है जिसे किसी शौहर ने अपनी बीवी की याद में बनवाया था। मकबरे की डिज़ाइन हुमायूं के मकबरे से इंस्पायर्ड है।