“बहादुर शाह ज़फर: शाही तख़्त से रंगून की तन्हा कैद तक”

जब बहादुर शाह ज़फर का जन्म हुआ, तब अंग्रेज़ हिंदुस्तान में अभी सिर्फ तटीय इलाकों में अपनी पकड़ बना पाए थे। वे तीन जगहों—कलकत्ता, मद्रास और बंबई—से देश के भीतर की ओर झांक रहे थे। लेकिन ज़फर की ज़िंदगी में उन्होंने अपनी आँखों के सामने मुग़ल वंश की इज्जत और रुतबे को धीरे-धीरे खोते देखा। अंग्रेज़, जो पहले साधारण व्यापारी थे, धीरे-धीरे एक ताकतवर फौजी शक्ति बन गए।

उस वक्त मुग़ल सल्तनत का दायरा दिल्ली से पालम तक सिमट चुका था। लाल किले से बाहर बहादुर शाह ज़फर की हुकूमत का कोई खास असर नहीं रह गया था। फिर भी, शाहज़हानाबाद (पुरानी दिल्ली) के लोगों के दिलों में उनके लिए गहरा सम्मान और प्यार बरकरार था। उस दौर में, जब मुग़ल सल्तनत की चमक फीकी पड़ रही थी, उर्दू साहित्य और शायरी अपने चरम पर थी। लाल किले में बड़े-बड़े मुशायरे हुआ करते थे, जहां मिर्ज़ा ग़ालिब, मोमिन खान मोमिन, ज़ाहिर देहलवी और दाग़ देहलवी जैसे मशहूर शायर अपनी रचनाएँ सुनाते थे। खुद बहादुर शाह ज़फर भी एक मंझे हुए शायर थे। उनकी आखिरी शायरी में उनके दिल का दर्द साफ झलकता है। उनका अंतिम समय बेहद तकलीफ और दुख में बीता।

इसके बावजूद, लोगों के दिलों में उनके लिए इतना प्यार था कि 1857 की क्रांति में सभी बागी राजाओं और सिपाहियों ने उन्हें अपना नेता माना। लेकिन जब यह क्रांति नाकाम हो गई, तो अंग्रेज़ों ने ज़फर को गिरफ्तार कर लिया। उनके अपने ही लाल किले में उन पर मुकदमा चला और उन्हें बगावत का दोषी ठहराकर रंगून (आज का यांगून) निर्वासित कर दिया गया। उनकी बाकी ज़िंदगी रंगून में एक छोटे से 16 फुट के कमरे में कैद होकर गुज़री।

इस दौरान उन्होंने जो शायरी लिखी, उसमें उनकी बेबसी और वतन के लिए मोहब्बत साफ नज़र आती है। अंग्रेज़ों ने उन्हें कागज़ और कलम तक नहीं दी, फिर भी वे जली हुई तीलियों से दीवारों पर अपनी ग़ज़लें लिखते रहे।

7 नवंबर 1862 को, 87 साल की उम्र में, बहादुर शाह ज़फर ने आखिरी सांस ली। उस वक्त शायद उनकी ज़ुबान पर यही शेर रहा होगा:

कितना है बदनसीब ‘ज़फर’ दफ्न के लिए,

दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में…