इतिहास के पन्नों में लखनऊ

शकील हसन शमसी

कहा जाता है कि लखनऊ को राम चंद्र जी के छोटे भाई लक्ष्मण जी ने आबाद किया था और उन्हीं के नाम पर इस जगह का नाम लक्ष्मणपुर पड़ा जो बाद में लाखनपुर फिर लखनौती हुआ और बाद में लखनऊ हो गया लेकिन कुछ इतिहासकारों का कहना है कि मुग़ल बादशाह अकबर के ज़माने में अवध के इस इलाक़े में लखन नाउ नाम का एक बहुत निर्दयी और खूंखार डकैत रहता था, इस वजह से पूरे इलाक़े को लखन नाउ का इलाक़ा कहा जाता था। इतिहासकार अली सरवर ने लिखा है कि जब अकबर को लखन नाउ के आतंक के बारे में पता चला तो उसने अपनी फ़ौज को भेजा, सैनिक दल ने लखन नाउ को गिरफ़्तार किया और उसको ज़िंदा चुनवा कर वहां पर अकबरी दरवाज़ा बनाया। कुछ लोगों का यह भी कहना है की एक ज़माने में गोमती में एक लाख नावें चला करती थीं इस लिए इस को लाख नाव कहा जाता था। सच जो भी हो इस में कोई शक नहीं कि यह शहर और यहां की तहज़ीब सब से अलग है।

लखनऊ से दिल्ली वापस जाते वक़्त हज़रतगंज में मुझे वहां के ऐतिहासिक इमाम बाड़े सिब्तैनाबाद में एक मजलिस में शरीक होना था । इस लिए शाम के तीन घंटे हज़रतगंज में गुज़रे। आज जहाँ हज़रत गंज है वहां पहले मेंदु ख़ान रसालदार की छावनी थी, इस जगह को नवाब अमजद अली शाह ने मेंदु ख़ान से लिया और फिर वहां एक इमाम बड़ा बनवाना शुरू किया जिस का नाम उन्होंने सिब्तैनाबाद रखा और उस के आस पास जो मोहल्ला आबाद किया उसका नाम हज़रत गंज रखा। हज़रतगंज नाम रखने के वजह शायद यह थी की खुद अमजद अली शाह को अवध वाले आम तौर पर हज़रत कहते थे।

सिब्तैनाबाद का इमाम बाड़ा उन्होंने बनवाना शुरू किया था लेकिन फ़रवरी 1847में उनका निधन होने के बाद इस इमाम बाड़े का काम अवध के आख़िरी शासक वाजिद अली शाह ने 1848 में पूरा किया जिस पर दस लाख रुपए खर्च हुए। अमजद अली शाह इसी इमामबाड़े में दफ़्न भी हुए लेकिन 1857 में जब अंग्रेज़ों ने भारतीय सैनिकों को शिकस्त दे कर अवध समेत पूरे भारत पर क़ब्ज़ा कर लिया तो बड़े इमाम बाड़े और टीले वाली मस्जिद के साथ साथ सिब्तैनाबाद को भी अपनी छावनी बना लिया। सिब्तैनाबद में के इमाम बाड़े के दालान में अंग्रज़ों ने अपने ईसाई सैनिकों के लिए प्रेयर रूम बना लिया था, मगर 1860 में शिया धर्म गुरु मौलाना इब्राहीम साहिब ने धार्मिक स्थलों को ख़ाली किये जाने की मुहिम चलाई तो अँगरेजों ने बड़े इमाम बाड़े और टीले वाली मस्जिद के साथ साथ इस इमाम बाड़े को भी ख़ाली किया और इस इमाम बाड़े से कुछ दूर पर अपना गिरजा घर क्राइस्ट चर्च के नाम से स्थापित किया। फिर भी इस इमाम बाड़े की रौनक़ वापस ना आ सकी। 1919 में इस को संरक्षित इमारत घोषित किया गया लेकिन यह इमाम बाड़ा पूरी तरह से आबाद न हो सका क्यूंकि बहुत से ईसाई इसी इमाम बाड़े की जायदाद पर क़ब्ज़ा कर चुके थे।

1947 में देश के विभाजन के समय कुछ और लोगों को इस में बसाया गया और इस इमाम बाड़े में बनी मस्जिद को छोड़ कर बाक़ी सभी स्थानों पर क़ब्ज़े हो गए। 1980 में इस इमाम बाड़े की धार्मिक स्तिथि बहाल करने के लिए शिया समुदाय के लोगों ने मौलाना कल्बे जावद के नेतृत्व में प्रदर्शन करना शुरू किये 2005 में इस इमाम बाड़े के दालानों से नाजायज़ कब्ज़े हटवा कर समाजवादी पार्टी की सरकार ने शिया समुदाय को सौंप दिया। अब वहां बड़े बड़े आयोजन होते हैं और इमाम बड़े की रौनक़ बड़ी हद तक लौट चुकी है मगर उसके साथ बने मकानों और दुकानों पर अब भी सैकड़ों लोग क़ाबिज़ हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *