एक फकीर की रोटी और दुआ से शुरू हुआ दिल्ली के सुल्तान का सफ़र

आज के दिन ही, 19 जुलाई 1296 ई. को, सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी के क़त्ल के बाद दिल्ली का ताज सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी को मिला था। खैर सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की ताजपोशी तो 21 अक्टूबर 1296 को इलाहाबाद के करीब कौशाम्बी जिले में कड़ा नामी जगह पर हुयी थी, लेकिन फिर भी 19 जुलाई 1296 से ही अलाउद्दीन खिलजी ने तमाम जिम्मेदारियां संभाल ली थीं।

सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के सुल्तान बनने की कहानी बड़ी दिलचस्प है। जब जलालुद्दीन खिलजी 1290 में दिल्ली के तख्त पर बैठे तो उसने अपने भतीजे व दामाद अलाउद्दीन खिलजी को कड़ा (कौशाम्बी) का सूबेदार बनाया। उसी दौर में ख्वाजा कड़क शाह अब्दाल रह. साहब अक्सर कड़ा के कजियाना मुहल्ले के पास एक मस्जिद के करीब फकीर के साथ बैठे रहते थे। एक दिन अलाउद्दीन घोड़े पर सवार होकर अपने सिपाहियों के साथ शहजादपुर जा रहा था। उसे देखकर ख्वाजा साहब ने दिल्ली का शहंशाह कहकर आवाज लगाई। अलाउद्दीन करीब पहुंचा और कहा कि मैं मामूली सा सूबेदार हूं। तो ख्वाजा साहब ने कहा कि तू दिल्ली का शहंशाह है, आज तेरी ताजपोशी करूंगा।

ख्वाजा साहब ने एक रोटी मंगाकर उसके चार टुकड़े किए। एक टुकड़ा बगल में बैठे फकीर को दिया, दूसरा टुकड़ा अलाउद्दीन को। बाकी टुकड़े उसके सिर पर कपड़े से बांधकर कहा कि जा तेरी ताजपोशी हो गई, तू दिल्ली का शहंशाह बन गया। इसके बाद अलाउद्दीन दिल्ली गया। यहां बादशाह जलालुद्दीन अपने दामाद व भतीजे को मरवाने की ताक में लगा था। जलालुद्दीन ने अपनी बेटी जो अलाउद्दीन की बीवी थी, विश्वास में लेने के लिए लालच दिया। उसने अपनी बेटी से कहा कि मेरी एक बात मानो। मेरे बाद दिल्ली की गद्दी तुमको मिलेगी, तुम्हारे पति ने कुछ ऐसी हरकत की है जिसके चलते मैं उसे मरवाना चाहता हूं। बेटी से अलाउद्दीन को जहर देने की बात कही।

उसने यह बात अलाउद्दीन को बता दी। इस पर वह रात में ही कड़ा भाग आया। खबर होने पर जलालुद्दीन साढ़े तीन लाख फौज के साथ सन् 1296 में कड़ा के लिए रवाना हो गया। उसने कड़ा स्थित गंगा पार मानिकपुर में फौज को ठहराया। उसने एक सिपाही से अलाउद्दीन को हाजिर होने हुक्म भेजा।

अलाउद्दीन ने ख्वाजा साहब से पूरी बात बताई। तो उन्होंने रुबाई पढ़ना शुरू किया- हर कि आमद बरसरे जंग, तन सरे कश्ती सर दरे गंग। इस पर अलाउद्दीन हिम्मत करके अकेले नाव पर सवार होकर जलालुद्दीन से मुलाकात करने पहुंचा। उधर बीच नदी में जलालुद्दीन भी अपनी फौज के साथ मौजूद था। अलाउद्दीन ने जैसे ही कदमबोशी के लिए सिर झुकाया, सिपाहियों ने तलवार चलाई लेकिन ख्वाजा साहब के करिश्मा के चलते सिर जलालुद्दीन का आ गया। सिर गंगा में गिरा और धड़ कश्ती में। इस जगह का नाम उसी वक्त से गुमसिरा पड़ गया और ताज बहता हुआ आगे मिला। इसे मल्लाहों ने लाकर अलाउद्दीन को दिया। ताज जहां मिला था उसका नाम मल्लाहन पड़ा। दोनों नाम आज भी सिराथू तहसील के राजस्व अभिलेखों में मौजूद हैं। फिर अपनी बादशाहत का एलान करते हुए अलाउद्दीन ने ख्वाजा साहब से दुआएं लीं।

सुल्तान बनते ही अलाउद्दीन खिलजी ने सबसे पहले टैक्स सिस्टम को सुधारा उन्होंने सिस्टम से बिचौलियों को हटाकर सीधे आम आदमी से जोड़ा बिचौलियों के हटने किसानों और गरीबो को बहुत फायदा हुआ। इस टैक्स सिस्टम को शेर शाह सूरी से लेकर मुग़लों तक ने इस्तेमाल किया।

कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी की किताब “The Cambridge Economic History of India” में इस बात का ज़िक़्र है, की ख़िलजी का टैक्स सिस्टम हिंदुस्तान का सबसे अच्छा टैक्स सिस्टम था जो अंग्रेजों के आने तक चला।

अलाउद्दीन खिलजी ने सुल्तान बनते ही बड़ी तेजी से अपनी सल्तनत को फैलाया रणथम्भौर, चित्तौड़, मालवा, सिवान, जालोर, देवगिरी, वरंगल, जैसी सारी रियासतें सुल्तान के झोली में आ गिरीं। ख़िलजी ने अपनी जिंदगी की कोई भी जंग नहीं हारी लेकिन एक बीमारी से हार गया और कम उम्र (49 वर्ष) में ही इस दुनिया को अलविदा कह दिया था।

सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी के गुज़र जाने के दसियों बरस बाद भी लोग उनके दौर को ये कह कर हसरत से याद करते रहे की मरहूम सुल्तान के वक़्त में रोटी की इतनी क़ीमत नहीं थी और ज़िन्दगी बसर करना इतना मुश्किल नहीं था।

सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के दौर में 11 ग्राम चांदी के एक सिक्के के एवज़ में 85 किलो गेंहू मिला करता था। खाने की चीज़ों के ऐसे कम दाम उनकी हुकूमत के ख़त्म होने तक क़ायम रहे। बारिश हो या ना हो, फ़सल अच्छी हो या ख़राब हो जाये, खाने की चीज़ों के दाम रत्ती भर भी नहीं बढ़ते थे।