‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ का पूरा नाम ‘द सोसायटी ऑफ़ मुस्लिम ब्रदरहुड’ है, जिसकी स्थापना सन् 1928 में मिस्र में हसन अलबन्ना ने की थी। आज यह विभिन्न नामों के साथ हर उस देश में मौजूद है जहाँ जहाँ मुस्लिम आबाद हैं। कम या ज़्यादा इसकी मौजूदगी है। कई देशों में तो यह पूरी तरह स्थानीय नाम के साथ है।
हसन अलबन्ना ने आज से 94 साल पहले इसकी स्थापना की थी तो उनकी इच्छा थी कि इस संगठन के साथ वह इस्लाम के सुनहरे दौर में जाकर वैसी ही ख़िलाफ़त फिर से स्थापित कर सकते हैं। इस सपने को पूरा करने के लिए कई बुनियादी विचारधाराओं की आवश्यकता थी। जब हसन अलबन्ना मुस्लिम ब्रदरहुड की तहरीर लिख रहे थे, दुनिया विश्व युद्ध, नए बनते देशों, अमेरिका एवं संयुक्त राष्ट्र के उभार और ब्रिटिश साम्राज्य के उखड़ते पाँवों के बीच राष्ट्रवाद के विचार से गढ़ी जा रही थी। देशों के स्पष्ट सीमांकन से ब्रिटिश राजनीतिक विचार को नए सिरे से बल मिलने वाला था। हसन अलबन्ना उस्मानी ख़िलाफ़त े समाप्ति के समय काल में भी मुस्लिम ब्रदरहुड को स्थापित कर रहे थे। वह मानने लगे थे कि वह नया स्वरूप ले रही दुनिया में इस्लामी ख़िलाफ़त को फिर से स्थापित करने में सफल हो जाते हैं तो यह बड़ा कार्य होगा। हालांकि यह आसान लक्ष्य नहीं था। ब्रिटेन की महारानी ने भांप लिया था कि पूरी दुनिया में जल्द ही यूनियन जैक का झंडा उतरने वाला है। हसन समझ चुके थे कि दुनिया बहुत जल्दी इतनी बदल जाएगी कि मुसलमानों के लिए मुश्किल दौर आने वाला है।
हसन अलबन्ना एक स्कूल टीचर थे। वह मिस्र की एक मस्जिद में इमाम भी थे। उनका मानना था कि इस्लाम के हिसाब से ही राजनीति और निजी जीवन चलायमान होना चाहिए। वह राज्य, अर्थ व्यवस्था और समाज का इस्लामीकरण चाहते थे। वह खुले तौर पर ब्रिटिश विस्तारवाद, भौतिकवाद के विरोधी थे साथ ही मानते थे कि मिस्र के उलामा बूढ़े हो चुके हैं और वह नई राजनीतिक परिस्थितियों के हिसाब से फैसले नहीं ले रहे। अलबन्ना ने राजनीतिक रूप से प्रतिद्वन्द्वी दो विचारों को एक साथ समेटने की कोशिश की। वह अरब भ्रातृत्व में तो विश्वास करते थे लेकिन राष्ट्र या राष्ट्रवाद के किसी भी विचार में विश्वास नहीं करते थे। बल्कि वह राष्ट्र को बाधा मानते थे। यह उनकी कशमकश थी।
शुरूआत में मुस्लिम ब्रदरहुड ने क्रमिक नैतिक सुधार की वकालत की और सत्ता के हिंसक अधिग्रहण की उसकी कोई योजना नहीं थी। अलबन्ना चाहते थे कि मुसलमान ‘जिहाद ए नफ़्स’ यानी ‘आत्मा का जिहाद’ करें यानी ख़ुद को बेहतर बनाएं। अलबन्ना लोगों के ईमान, सेहत और राजनीतिक पुनर्जागरण की वकालत करते थे। लेकिन सन् 1924 में उस्मानी खिलाफत के उन्मूलन के साथ ही हसन अलबन्ना ने सशस्त्र संघर्ष को महत्वपूर्ण घोषित कर दिया।
उन्होंने मुस्लिम ब्रदरहुड के भीतर एक गुप्त सैन्य विंग के गठन की अनुमति दी, जिसने अरब-इजरायल संघर्ष में भाग लिया। अल-बन्ना ने मिस्रवासियों से सांस्कृतिक शुद्धता की भी अपील शुरू की। वह लोगों को प्चिमी रीति-रिवाजों को छोड़ने के लिए प्रोत्साहित करने लगे। सेंसरशिप और ‘हुदूद’ शारीरिक दंड के माध्यम से राज्य को इस्लामी सार्वजनिक नैतिकता को लागू करने की उन्होंने वकालत की। ‘हुदूद’ अरबी का शब्द है जिसका अर्थ होता है ‘सीमा’। इसका व्यापक अर्थ होता है इस्लाम की हद में रहकर नागरिक व्यवहार करें, अगर वह इनके बाहर जाएं तो उन्हें दंड दिया जाना चाहिए। यह दंड शारीरिक अधिक होना चाहिए। यह वह समय था जब हसन अलबन्ना के विचार खुलकर आने लगे थे। मिस्र के लोग उस्मानी ख़िलाफ़त के टूटने से ब्रिटेन से बहुत नाराज़ थे। वह मानने लगे थे कि शायद उनके दुख की दवा हसन अलबन्ना के पास है।
हसन अलबन्ना का परिचय सूफ़ी के तौर पर दिया जाता है। वह असरी, शादीलिया Shadhiliyya (Hasafi branch) की तरीक़त पर विश्वास रखने के बावजूद नव सूफ़ीवाद (Neo Sufism) की व्याख्या में प्रवेश कर गए। नव सूफ़ीवाद का यह विचार हसन अलबन्ना ने फ़ज़लुर्रहमान से सीखा। नव सूफीवाद शब्द मूल रूप से फजलुर रहमान द्वारा गढ़ा गया था। सूफ़ी व्याख्याओं को फिर से पुनर्परिभाषित करने के लिए यह विचार लाया गया। नव-सूफ़ीवाद के सुधारक के रूप में ख़ुद को स्थापित करने वाले यह मानने लगे थे कि सूफ़ी विचारों में पंथवाद और कुछ नया उत्साह आ गया है। आंतरिक आध्यात्मिकता और सामाजिक सक्रियता के आधार के रूप में नव सूफ़ीवाद की व्याख्या की गई। हज़ारों साल की इस्लामी सूफ़ी परम्परा को मिस्र में नए सिरे से परिभाषित करने का काम हसन अलबन्ना के प्रोत्साहन से शुरू हुआ। कुछ जानकार मानते हैं कि यह सूफ़ियों को भी अपने फ़ोल्ड में लाने की हसन अलबन्ना की राजनीतिक सोच थी। क्योंकि वह जब मुस्लिम ब्रदरहुड को मिस्र में स्थापित कर रहे थे, वह दौर उस्मानियों की विदाई और ब्रितानियों की दादागिरी का दौर था। हालांकि ब्रितानी भी जानते थे कि बहुत जल्द वह भी जाने वाले थे। हसन अलबन्ना को एक आसान, ग़ैर जातिगत, सुन्नी गठजोड़ की आवश्यकता थी जो सूफ़ीवाद औऱ वहाबीवाद की बहस किए बिना उनके राजनीतिक विचार पर एकमत हो जाए, जो वह सुन्नी मुसलमानों को सिखाना चाहते थे। हालांकि यह सच है कि हसन अलबन्ना के इस्लाम, राजनीति और ख़िलाफ़त की योजना में कई झोल थे।